Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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यह बात बिल्कुल तो असत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी-न-किसी हीले से अन्न-वस्त्र देता है। पंडित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख-भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गाएं न थीं, लेकिन घर में घी-दूध की नदी बहती थी; वह खेती-बारी न करते थे, लेकिन घर में अनाज की खत्तियां भरी रहती थीं। गांव में कहीं मछली मरे, कहीं बकरा कटे, कहीं आम टूटे, कहीं भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना मांगे आप-ही-आप पहुंच जाता। अमोला बड़ा गांव था। ढाई-तीन हजार जनसंख्या थी। समस्त गांव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहतीं। लड़के-लड़कियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तय होते। रेहननामें, बैनामें, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्श से लिखे जाते। मुआमिले-मुकद्दमें उन्हीं के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गांववालों के साथ उनका व्यवहार शुष्क और रूखा होता था। वह बेलाग बात करते थे, लल्लो-चप्पो करना नहीं जानते थे, लेकिन उनके कटु वाक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम नहीं, उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था, यह उनका इकबाल है, कोई कहता था उन्हें महावीर का इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानव-स्वभाव के ज्ञान का फल था। जानते थे कि कहां झुकना और कहां तनना चाहिए। गांवोंवालों से तनने में अपना काम सिद्ध होता था, अधिकारियों से झुकने में। थाने और तहसील के अमले, चपरासी से लेकर तहसीलदार तक सभी उन पर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार साहब के लिए वह वर्षफल बनाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानूनगो और कुर्कअमीन उनके द्वार पर बिना बुलाए मेहमान बने रहते। किसी को यंत्र देते, किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातों पर न थी, उन्हें मीठे आचार और नवरत्न की चटनी खिलाकर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हें अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहां ऐसे उनकी दाल न गलती वहां पंडितजी की बदौलत पांचों उंगलियां घी में हो जातीं। भला, ऐसे पुरुष की गांव वाले क्यों न पूजा करते?

उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से प्रेम था, लेकिन गंगाजली को मैके जाने के थोड़े ही दिनों पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहन को अपने घर लाने पर मन में बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मन से उसकी हां में हां मिला दिया करते। गंगाजली को साफ कपड़े पहनने का क्या अधिकार है? शान्ता का पालन पहले चाहे कितने ही लाड़-प्यार से हुआ हो, अब उसे उमानाथ की लड़कियों से बराबरी करने का क्या अधिकार है? उमानाथ स्त्री की इन द्वेषपूर्ण बातों को सुनते और उनका अनुमोदन करते। गंगाजली को जब क्रोध आता, तो वह उसे अपने भाई ही पर उतारती। वह समझती थी कि वे अपनी स्त्री को बढ़ावा देकर मेरी दुर्गति करा रहे हैं। ये अगर उसे डांट देते तो मजाल थी कि वह यों मेरे पीछे पड़ जाती? उमानाथ को जब अवसर मिलता, तो वह गंगाजली को एकांत में समझा दिया करते। किंतु एक तो जाह्नवी उन्हें ऐसे अवसर मिलने ही न देती, दूसरे गंगाजली को भी उनकी सहानुभूति पर विश्वास न आता।

इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। गंगाजली चिंता, शोक और निराशा से बीमार पड़ गई। उसे बुखार आने लगा। उमानाथ ने पहले तो साधारण औषधियां सेवन कराईं, लेकिन जब कुछ लाभ न हुआ, तो उन्हें चिंता हुई। एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी, उमानाथ बहन के कमरे में गए। वह बेसूध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था, साड़ी फटकर तार-तार हो गई थी। शान्ता उसके पास बैठी पंखा झल रही थी। यह करुणाजनक दृश्य देखकर उमानाथ रो पड़े। यही बहन है, जिसकी सेवा के लिए दो दासियां लगी हुई थीं, आज उसकी यह दशा हो रही है। उन्हें अपनी दुर्बलता पर अत्यंत ग्लानि उत्पन्न हुई। गंगाजली के सिरहाने बैठकर रोते हुए बोले– बहन, यहां लाकर मैंने तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है। नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा। मैं आज किसी वैद्य को ले आता हूं। ईश्वर चाहेंगे तो तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।

इतने में जाह्नवी भी आ गई, ये बातें उसके कान में पड़ी। बोली– हां-हां, दौड़ो, वैद्य को बुलाओ, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। अभी पिछले दिनों मुझे महीनों ज्वर आता रहा, तब वैद्य के पास न दौड़े। मैं भी ओढ़कर पड़ रहती, तो तुम्हें मालूम होता कि इसे कुछ हुआ है, लेकिन मैं कैसे पड़ रहती? घर की चक्की कौन पीसती? मेरे कर्म में क्या सुख भोगना बदा है?

उमानाथ का उत्साह शांत हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य बुलाया, तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीने हैं, वह भी न जी सकेगी।

गंगाजली की अवस्था दिनोंदिन बिगड़ने लगी। यहां तक कि उसे ज्वरतिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जौ की रोटियां कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह कहा। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।

शान्ता का अब इस संसार में कोई न था। सुमन के पास उसने दो पत्र लिखे, लेकिन वहां से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा, बहन ने भी नाता तोड़ लिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी, शान्ता उसके अंचल में मुंह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अवलंब भी न रहा। अंधे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब-तब अपनी कोठरी के कोने में मुंह छिपाकर रोती; लेकिन घर के कोने और माता के अंचल में बड़ा अंतर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।

शान्ता को अब शांति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटू वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिससे वह माता को कुछ न कह बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हांडी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इस पर उसने खूब गालियां खाईं। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग्य की चोटें नहीं सह सकता।

लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह इतनी सहनशील नहीं है; उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली-कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी-से-कड़ी यंत्रणा के लिए तैयार कर लिया है। मामा से वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी बहनों को तो वह तुरकी-बतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या-भय के बल पर दूसरे का खेत चरती है।

इस तरह एक वर्ष और बीत गया, उमानाथ ने बहुत दौड़-धूप की कि उसका विवाह कर दूं, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह कहीं ठीक न हुआ। उन्होंने थाने-तहसील में जोड़-तोड़ लगाकर दो सौ रुपए का चंदा कर लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहां? जाह्नवी का वश चलता, तो वह शान्ता को किसी भिखारी के यहां बांधकर अपना पिंड छु़ड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी, पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढ़ते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।

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